Friday, 6 October 2017

कुरबत-ए-सिफ़र-I

"यूँ तो लफ़्ज हजारों हैं ज़बाँ को बादस्तूर बयाँ करने के वास्ते,
लेकिन हिसाब शायरी का अच्छा है शायर की बदौलत.."


1. जो मुस्कुरा न सकोगे नन्हें चेहरे देखकर यतीमख़ानों में,

    क्या ही रंग लाएँगी दुआएँ रमज़ानों में..



2. ज़िंदगी क्या है?

    कहीं किसी अंजुमने-मय में एक जाम का छलक जाना

    और कहीं किसी मधुशाला में घूँट-घूँट को तरस जाना..



3. इतराती है जो इस शहर में फैली तमाम रौशनी

    हैरत है,

    चिराग तले अँधेरा जिस शिद्दत से कायम है..



4. बस शायराना न कह दो उस शायरी को,

    जिसे शायर ने ज़ख़्मों को कुरेद कर उकेरा है..



~सृष्टि

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