Sunday, 29 October 2017

शहर

है जो ये धुँध में लिपटा शहर,
मेरे ख़्वाबों को तोड़-मरोड़ उलझा देता है
कानों में चीखें गुँजाकर,
मुझे रातों को जगा देता है
गुम हो जाता हूँ मैं,
इसकी भीड़ में
अँधेरे में
जो मिटता नहीं
सैकड़ों जलती रौशनियों के बाद भी
और अकेली राहों में
मेरे इर्द-गिर्द सिमट आता है..
है जो ये बेचैनी उगलता शहर,
मुझे गलियों में भटका देता है
और है बात औरों की,
मैं मुझसे नहीं मिल पाता हूँ
खुद की आँखों में खुद का कुछ,
ढूँढता रह जाता हूँ
हवा भी मुझे यहाँ,
प्यार से नहीं सहलाती है
लगता है हर दफ़ा मुझपर,
हँसकर निकल जाती है
अब तो दिल भी यहाँ
पुरानी किताबों की ख़ुश्बू से दिल बहला लेता है,
है जो ये बिना तारों का शहर,
मेरी सिसकियाँ शोर में दबा देता है..

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