Wednesday, 7 March 2018

नज़रिया

आओ,
मेरी कलम के लिखे लफ़्जों को ज़रा महसूस करके भी देखो
पिरोया जिन जज़्बातों को मैंने कविता के हार में,
उन्हें मोतियों से ज़रा और ज़िंदा मानकर भी देखो
देखो,
किस नज़ाकत से बटोर लिया मैंने अश्कों को
और घोलकर स्याही में, काग़ज़ पर करीने से बिखेर दिया
जो कुछ फी़का पड़ गया रंग स्याही का,
तो काग़ज़ को रूसवा मानकर भी देखो..
समझो, न समझो तुम मेरी दिवानगी इस रात के लिए
मेरे कहने से एक बार इसे कुछ गुफ़्तगू करने देकर भी देखो
कुछ कहो, कुछ सुनो,
कुछ खुद में शामिल होने देकर भी देखो
है हयात यह भीनी रंज़िश मेरे वास्ते,
तुम इसमें एक लम्हा तो गुज़ार कर देखो
कहती है दुनिया शायर मुझे,
आओ,
मुझे एक दफ़ा औरों सा भी मानकर देखो..

2 comments:

  1. This was the best one till date.. Nice work shrishti shrivastava

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    1. Thanks a lot, Akshansh. (:
      Readers have always been one of the biggest inspirations of writers. Keep reading and reviewing us. (:

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