काल्पनिकता और वास्तविकता, एक कवि के विडंबना-पूर्ण जीवन की सर्वथा विपरीत, परन्तु सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण इकाईयां हैं। एक पल में कवि अपनी वास्तविकता के धरातल से कहीं ऊपर पहुँच किसी मोहक काल्पनिक आकाश में पेंचे लड़ाने लगता है, पर तभी कोई क्षितिज से ठठाकर हँस पड़ता है - "चाहे कितना ही विस्तृत हो ये आकाश, है तो मिथ्या ही!"....और कवि लौट आता है वास्तविकता के धरातल पर, अपनी आहत मनोदशा को शब्दों में उतारने, और शब्दों को बांधते-बांधते फिर से क्षणभंगुर काल्पनिकता को अपने विचारों का अमृत पिलाने।
कवित्व का अभिशाप, और हः! ऐसा उपहास!
कवि भी क्या करे? यह संसार भले ही उसे क्षुब्धः कर देता हो, पर है तो वहीं, उसकी नज़रों के आगे बिखरा पड़ा यर्थाथ! सत्य भले ही हलाहल हाथ में ले स्वागत को खड़ा हो, उससे विमुख होना संभव नहीं है। परन्तु मिथ्या में वह लोच नहीं! मिथ्या पूर्ण नहीं है, पूर्ण मान लेने का सुख है। कवि के लिए मिथ्या अमृत नहीं, संजीवनी है.....
और जो कवि होकर रह लिया, उसका अमृत से क्या प्रयोजन?
परन्तु है तो वह कवि ही, भौतिक ही, मानव ही....
वह काल्पनिकता, यह वास्तविकता, हे ईश्वर, यह कैसी मृग-मरीचिका है जिसकी चिर तृष्णा तूने मुझे दी है?
कवित्व का अभिशाप, और हः! ऐसा उपहास!
कवि भी क्या करे? यह संसार भले ही उसे क्षुब्धः कर देता हो, पर है तो वहीं, उसकी नज़रों के आगे बिखरा पड़ा यर्थाथ! सत्य भले ही हलाहल हाथ में ले स्वागत को खड़ा हो, उससे विमुख होना संभव नहीं है। परन्तु मिथ्या में वह लोच नहीं! मिथ्या पूर्ण नहीं है, पूर्ण मान लेने का सुख है। कवि के लिए मिथ्या अमृत नहीं, संजीवनी है.....
और जो कवि होकर रह लिया, उसका अमृत से क्या प्रयोजन?
परन्तु है तो वह कवि ही, भौतिक ही, मानव ही....
वह काल्पनिकता, यह वास्तविकता, हे ईश्वर, यह कैसी मृग-मरीचिका है जिसकी चिर तृष्णा तूने मुझे दी है?
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