मुझसे एक बार किसी ने पूछा, "क्या कविता लिखकर तुम्हारे चित्त को शाँति मिलती है? अगर नहीं मिलती, तो कविता लिखते क्यों हो?"
भौतिकता की सत्ता के उस पराधीन को कौन समझाए कि चित्त की शाँति के लिए कवि क्रन्दन नहीं करता। उसकी कविता ही उसका क्रन्दन है। उसके तप्त हृदय की उष्णता उसके अश्रुओं को आँखों से ढलकने नहीं देती, अपितु उसकी पीड़ा को शब्दों में ढालकर काग़ज़ पर बिखेर देती है। अगर कविता में उसने कहा है कि उषा लाल साड़ी पहनकर मोहिनी लगती है, तो वह इसलिए क्योंकि उषा से पहले उसने विभावरी को तारों के दीप जलाकर प्रियतम की वेदना से चीत्कार कर धरा को बूँद-बूँद भिगोते भी देखा है। कविता बंजर में खड़ा कोई हरित वृक्ष नहीं है, जिसका आधार ले कवि अपनी व्याकुलता को विराम दे सके। कविता वह मूर्ति है, जिसे कवि ने अपने अप्रकट विचारों की मृदा और अप्रत्यक्ष अश्रुओं को मिलाकर आकार दिया है, अपने दग्ध हृदय की ज्वाला में तपाया है, और अपनी व्यथा के आलिंगन से उसमें प्राण फूँक दिए हैं....उसे देखकर वह शाँति नहीं, केवल व्यथा का अनुभव कर सकता है।
जिस दिन मेरी कविता के शब्द-शब्द में समाहित व्यंग्य और वेदना को यह संसार एक साथ समझ लेगा, उस दिन कदाचित मैं कहूँगा कि मेरा कवि होना व्यर्थ न गया। पर वह असम्भव है, मिथ्या है! संसार के लिए मैं कवि हूँ, और मेरे प्रत्यक्ष रूप की सीमा का अतिक्रमण कर अप्रत्यक्ष से परिचित होना, मेरे विचारों की सूक्ष्मता और वृहद्ता का मंथन करना, संसार की भौतिकता और क्षणभंगुरता के बस की बात नहीं... मैं कवि हूँ, और मेरी वेदना का गान करने की शक्ति केवल मेरी कविता में है...
उषा लाल साड़ी पहनकर मोहिनी लगती है, तो वह इसलिए क्योंकि उषा से पहले उसने विभावरी को तारों के दीप जलाकर प्रियतम की वेदना से चीत्कार कर धरा को बूँद-बूँद भिगोते भी देखा है।
ReplyDeleteHow deep they thought .. n how the way expessed .
Thanks for the admiration, dear reader. :)
DeleteI hope you keep reviewing and supporting us.