Friday, 5 January 2018

टीस

अक्सर ही कुछ लिखते-लिखते उसे अधूरा छोड़ देने की आदत है मुझे..कुछ क्या, काफ़ी कुछ है जिसे मैं कहना नहीं चाहता, और बिना कहे घुटकर रह जाना भी नहीं चाहता । उस अनकहे का बोझ मन में लिए कुछ लिख दूँ, तो मेरी कलम मुझे कोसेगी । दिन के शोर और रात के सन्नाटे के बीच जो मुझे बिना किसी बोझ के ठिठका देता है, वही मेरा लम्हा है । और उस लम्हे में हर सिमटे-छुपे दर्द को कागज़ पर उतार देना मेरा काम..काम ही कहूँगा, पेशा नहीं ।
मैं अपने लम्हे में लिखता हूँ..कभी लिखते हुए मुस्कुरा भी देता हूँ, कभी कागज़ को अमीबे की शक्ल में भिगा भी देता हूँ । जैसे दिन की हलचल में कोई खनकती हँसी कानों में गूँज-सी जाती है, वैसे ही यादें एकबारगी मन में छुपन-छुपाई खेलते हुए पकड़ी जाती हैं । फिर वो जो आँसू आँखों से छलकते-छलकते रह जाता है, उसे पता होता है, कि दर्द किसे कहते हैं..

अगर सुबह का सूरज देखकर मैं लिखने बैठूँ और मेरा हाथ कलम पकड़े हुए रूक जाए, तो वजह है कि उस कागज़ का कोरापन मुझे अपना-सा लगता है । तब स्याही से उसपर ऐसे निशान छोड़ने का मन नहीं करता, जो मिटाए न जा सकें । भले ही समंदर के पार एक इन्द्रधनुषी दुनिया बसती होगी, पर उसके और मेरे बीच में उस बोझ का फ़ासला है । या फिर यूँ है कि समंदर की तन्हाई मुझे ज्यादा पसंद है । इस तन्हाई में कुछ सुकून नहीं देता, तो कुछ मुझे झकझोर भी नहीं देता । कुछ भी न सही, तो मेरा लम्हा मयस्सर है मुझे यहाँ । हाँ, वक्त-बेवक्त वो बोझ मेरे लम्हे में घुल आता है, मेरी कलम थम जाती है, पर मेरी ख़ामोशी का वज़न मेरे लफ़्ज़ों से ज्यादा हो, तो ही अच्छा है । जो लिख रहा हूँ वो अधूरा रह जाए, इसी में भलाई है..

'न पूछो मुझसे क्या कहती है मेरी शायरी,
वो रंज़ है मेरा जिसका तुम लुत्फ़ उठा रहे हो..'

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