Thursday, 7 December 2017

बस

घड़ियाँ गिन-गिन कर दिन गुज़ार लूँ,
ये हैसियत अब मेरी नहीं है
रातों को भी चौंधियाते इस आसमान में
तारे ढूँढकर मुस्कुरा लूँ,
इतनी शिद्दत अब मुझमें नहीं है
मेरे बिखरे टुकड़ों को समेट पाना,
अब इस शहर के बस की नहीं है ।
कड़वा कर चुकी हैं मुझे,
यहाँ की काली परछाइयाँ
और ज़हर हो जाऊँ,
ऐसी ख़्वाहिश अब मेरी नहीं है
बहुतेरी इमारतों की यहाँ,
दीवारें सिल गई हैं
और सिल गई हैं,
शहरवालों की रूहें
इन सबको धूप दिखाऊँ
ऐसी रहमदिली अब मुझमें नहीं है
बंजारा ही भला था मैं
भीड़ देखकर ठिठक जाऊँ,
ऐसी आदत अब मेरी नहीं है
मुझे एक पल को भी लुभा जाना,
अब इस शहर के बस की नहीं है ।

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