मेरा अल्लाह मुझसे कहता है- "मुकद्दर की स्याही पर अफ़सोस मत कर, वक्त का दरिया उसे बहा ले जाएगा अपने साथ.. और लिख जाएगा एक नई इबारत तेरे दर पर। इन मोतियों को मत कर ज़ाया, अभी इज़हार और इकरार, दोनों बाकी हैं.."
जी में आया कह डालूँ सब, पर मेरा अल्लाह था वो, कैसे भूल जाता अपना अद़ब?
मैंने कहा- "मुकद्दर की स्याही पर अफ़सोस करना मेरी फ़ितरत नहीं, मौला। न अपने दर पर लिखी उन इबारतों की परवाह है, जिन्हें तेरे वक्त का दरिया बनाता बिगाड़ता रहता है। और तू क्यों कह रहा है मुझसे ये सब? तू तो ख़ुद नचाता आया है कठपुतलियों को.."
अल्लाह ठठाकर हँस पड़ा। बोला- "तू सोचता है तू कहेगा नहीं तो मुझसे तेरी तपिश की इत्तला न होगी? क्यों भूल जाता है मतवाले, अल्लाह हूँ मैं.. जो तुझसे और तेरे जैसों से परे है। जब मौत से जूझता अपनी मोहब्बत को याद कर रहा था तू, तब तेरी जानबख़्शी मैंने की है। उस सनम को देखकर जो अह़सास होता है तुझे, वो मेरा दिया हुआ है। उसकी याद में जिन्हें बहाता है, वो आँसू मैंने बख़्शे हैं तुझे, मैंने! मैं ही जिम्मेदार हूँ, तेरी नफ़रत का भी, मोहब्बत का भी.. मैं ही परवरदिगार हूँ, इस दुनिया का भी, उस दुनिया का भी "।
मेरा दिल भर आया। क्या कहता मैं उससे? उसके बख़्शे अह़सास और आँसुओं का ही ख़्याल हो आया शायद। नज़रें झुकाकर इतना ही कहा-" तूने कभी राह भी तो न दिखाई मुझे। ख़ुद ही गिरता संभलता चलता आया हूँ इन रास्तों पर। याद भी नहीं कि तूने कभी हाथ थामकर कहा हो कि कह डाल मुरीदे, हल्का कर ले दिल। "
इस बार नज़रें अल्लाह ने चुराईं। बोला-" मैं ये न कहता हूँ कि तेरा हाथ न थामूँगा, पर जब तुझे मेरी ज़रूरत होगी तब। मैं ये ने कहता कि न सुनूँगा तेरी दास्तान, पर जब तू समंदर नहीं, दरिया बनकर दिखाएगा तब। दरिया बन, और बह जाने दे जो कुछ है तेरी गहराई में। मत कर इकट्ठा उसे समंदर की तरह। दरिया की ऊँची नीची लहरों में खोने दे ये आँसू, मत रख इन्हें समंदर की परतों में.. वरना सैलाब ले आएगा ये समंदर, हाँ, कह देता हूँ। मिट जाएगी हर इबारत हमेशा के लिए, बेवकूफ़! "
सुन रहा था मैं चुपचाप। ज़िरह करने की न चाह़त थी, न गुंजाइश। कहना तो बहुत कुछ था, पर मोहब्बत बड़ी कमबख्त होती है.. महबूब से कुछ कहने को ज़बान नहीं पिघलती, और अल्लाह से कुछ कहने को दिल कड़ा नहीं होता।
पर मुश्किल था रोक पाना ख़ुद को। सो न रोक सका। बोल ही पड़ा आख़िर-"मैं तुझे और तेरे हुक़्म को सलाम करता हूँ, पर मैं यह न कर सकूँगा। तू कहता है कि समंदर न बनूँ मैं? तूने बनाया है समंदर मुझे, मेरे मालिक! सच कह गया तू, तू ही जिम्मेदार है, मेरी नफ़रत का भी, मेरी मोहब्बत का भी.. आख़िर चला ही गया महबूब मेरा, और तूने ख़बर तक न होने दी मुझे.. अगर लड़ रहा था मौत से मैं, तो क्यों की मेरी जानबख़्शी? देख मुझे और बता, क्या हूँ मैं जिंदा? कहाँ था तू जब घुटनों पर झुक-झुक कर सिर्फ एक दुआ की थी कि रोक ले मेरे दिल-अजी़ज को.. जो इतनी ही फिक्र थी इबारतों के मिटा जाने की, तो तब क्यों न आया रह़म तुझे अली? अब विदा कर मुझे, दरिया न बन सकूँगा अब मैं। ये आँसू हैं जो इस समंदर की परतों में, इन्हें दरिया की लहरों में खो नहीं सकता मैं, इन्होंने ही बाँध रखी हैं साँसें मेरी.. आ जाने दे सैलाब मुझमें, तब ये आँसू भी बिख़र जाएँगे और मेरी साँसें भी। मिट जाएँगी इबारतें भी, मैं भी.. तब शायद अपनी उस दुनिया में लिख दे तू उसे मेरे मुकद्दर की इब़ारत में.. "
मेरे अल्लाह की आँखों से आँसू टपक पड़े।