Saturday, 18 November 2017

नए-नए सपने

सावन की सम्मोहक बगिया में,
लहलहाते हैं नए-नए सपने
शोख़ बसंती हवा के संग,
खिलखिलाते हैं नए-नए सपने
सुबह की हल्की धूप में,
झिलमिलाते हैं नए-नए सपने।

रिमझिम बूँदों की धुन पर,
थिरकते हैं नए-नए सपने
बेला के सफ़ेद फूलों के संग,
महकते हैं नए-नए सपने
अलबेली, अकेली रातों में,
संवरते हैं नए-नए सपने।

नए-नए सपने हैं ये,
नए-नए सपने।

न सिर्फ़ बुने जाते हैं ये,
टूटते भी हैं नए-नए सपने
न सिर्फ़ साँसों में बसते हैं,
मरते भी हैं नए-नए सपने
भूख़ी-नंगी आगों में,
जलते भी हैं नए-नए सपने।

वो देखो, अरूण तो तप रहा है,
सुनो ज़रा, तरूण से कुछ कह रहा है..

कह रहा है कि ये धूप सुहावनी नहीं है,
ख़ामोशी से अंगारे बनकर बरस जाएगी,
झुलस जाएँगे तेरे नए-नए सपने
ये हवा लुभावनी नहीं है,
तूफ़ान बनकर सब उजाड़ जाएगी,
बिख़र जाएँगे तेरे नए-नए सपने।

रास्ते में फूल तो बिछे हैं,
पर उनमें कहीं रोड़े भी छुपे हैं
संभलकर चलना,
गिरकर टूट न जाएँ नए-नए सपने
ये सिर्फ़ सपने नहीं हैं,
तेरी साँसों की डोर है,
डोर ढीली मत छोड़ना,
उलझ जाएँगे नए-नए सपने.

आख़िर नए-नए सपने हैं न,
नए-नए सपने..

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